लोकतंत्र
एक समय था जब आलोचना को लोकतंत्र की आत्मा माना जाता था, लेकिन आज भारत में राजनीतिक दलों द्वारा इसे धीरे-धीरे कुचलने के प्रयास बढ़ते दिख रहे हैं। देश के नागरिकों के बीच अपने पसंदीदा नेताओं को ‘खुदा’ मानने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है, जिसके चलते उनके खिलाफ किसी भी प्रकार की टिप्पणी को सहन नहीं किया जाता है।यह बहस अब इस बात से कहीं आगे निकल गई है कि किस राजनीतिक दल ने आलोचना या आलोचकों का स्वागत किया है। मूल प्रश्न यह है कि क्या लोकतंत्र में नेताओं को ईश्वर का दर्जा देना उचित है?
निस्संदेह, राजनीतिक पसंद व्यक्तिगत मामला हो सकता है, लेकिन मानवता, ईमानदारी और सच्चाई जैसे मूल्य सार्वजनिक जीवन में सर्वोपरि होने चाहिए। एक देश केवल राजनीतिक व्यक्तियों की प्रशंसा से आगे नहीं बढ़ता। प्रगति तभी संभव है जब आलोचना और आलोचकों को महत्व दिया जाए।

हालांकि, वर्तमान परिदृश्य निराशाजनक है। लिखने वालों की कलम छीन ली जाती है और बोलने वालों की आज़ादी को धमकियों से दबा दिया जाता है। सरकार भले ही मजबूत होने का दावा करे, लेकिन निष्पक्ष सवालों से भी विचलित होती दिखती है। तथाकथित ‘चाणक्य’ की भूमिका में रहने वाले नेता खरीद-फरोख्त में व्यस्त हैं, जबकि एक वर्ग मीडिया का सच्चाई से दूर, बंद कमरों में बैठकर अपनी राय थोपता नजर आता है।
जमीनी हकीकत हाशिये पर है, सुर्खियों में आने का इंतजार कर रही है। ऐसे माहौल में ‘देश मजबूत हाथों में है’ यह मान लेना ही शायद समझदारी है, क्योंकि हर कोई अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है।
आलोचक बने रहने में अब कोई लाभ नहीं दिख रहा। यदि कोई अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का प्रयास करता है, तो ‘भावना आहत’ समूह के शिकार होने का खतरा है। वर्तमान में, अंधभक्तों की भावनाओं का ही मूल्य है, और आपकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी सवालों के घेरे में है।
इसलिए, यह स्वीकार करना ही बेहतर है कि देश सुरक्षित और मजबूत हाथों में है। और यह भी कि अब लोकतंत्र की आत्मा आलोचना नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार के ‘गांधीजी’ बन गए हैं – वे गांधीजी नहीं जो सत्य और अहिंसा के प्रतीक थे, बल्कि वे जो तथाकथित चाणक्य की नीतियों का समर्थन करते हैं।